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पूछते हैं वो के “ग़ालिब कौन है?
कोई बतलाओ के हम बतलायें क्या?
आज नई दिल्ली की चकाचौंध से दूर हम थोड़ी तंग गलियों से होते हुए दिल्ली-6 पहुंचे । नज़र ऊपर उठाओ तो बिजली के तारों का जाल आपको थोड़ा भयभीत करता है। लोगों की तेज रफ्तार और काफी तरीके के अवरोध होने पर भी उनसे निकलने का ज़ज्बा भी अलग है।
पर इन सब से हटकर भी कुछ था-
वो महक जो उन पुरानी दुकानों से आ रही थी,जो दिल्ली का इतिहास समेटे हुए है। सही अर्थ में दिल वालों की दिल्ली यही है।
फिर उन गलियों से होते हुए , हम ग़ालिब की गली में पहुँच गए। हमारी सोच के विपरीत वहां कुछ भी ऐसा नहीं था , जहां क्षण भर रुका जाए। फिर आयी हवेली, जिसकी दीवारें ही बता रही थी , कि ये किसी कलम के पुजारी का घर रहा होगा, वैसे इस भवन को सिर्फ कहने के लिए धरोहर बोला गया है,वहां जाकर ऐसा एहसास नहीं हुआ।
जो धूल ग़ालिब की उस ज़माने की किताबों पर थी, वही परत वहां की दीवारों और दरवाजों पर नज़र आ रही थी। खैर हम अंदर आये••
ये कहां कि दोस्ती है
के बने हैं दोस्त नासेह।
कोई चारासाज़ होता,
कोई ग़मनुसार होता।।
कुछ ऐसी ही चंद लाईनों और तस्वीरों से सजी दो कमरों की सहमी सी हवेली। कुछ दीवारें टूटकर लाचार सी हो गई हैं, उनका जीर्णोद्धार होगा इसी आशा में शायद गिरी नहीं अबतक!
कोई मेरे दिल से पूछे,
तेरे तीर-ए-नीमकश को।
यह ख़लिश कहां से होती है,
जो जिगर के पार होता?
यहां ग़ालिब के जीवन से जुड़ी बातें, तस्वीरों में नज़र आती हैं । कुछ कपड़े, किताबें , शतरंज और भी काफी सारी बातें जो हमें उस दौर में ले जाने का प्रयास करती हैं।
अगर बात करें पर्यटकों की तो उनकी संख्या इतनी भी नहीं थी, कि चलते-चलते कंधे टकराये। एक गार्ड साहब भी थे, जो इस मौन महफिल में थोड़ा चहल-पहल ले आते हैं।
वैसे इस जगह में आज भी ग़ालिब के लिए वही अदब है, जो शायद उनके जमाने में हुआ करता था, तभी तो हर वर्ष उनके जन्मदिन के दिन ही सही पर इस हवेली में भी उजाला होता है।
कैमरा भी इसकी दीवारों को कैद करने की कोशिश करता होगा, कुछ भाषण और ढेर सारे वादे•••••
पर कुछ भी हो वो धूल की जिल्द चढ़ी किताब आज भी उन महान शख्सियत की महानता को संजोये रखे है।
कहते हैं ग़ालिब भी ,
कि कुछ देर ठहर जाओ।
ये दीवारें पुरानी सही,
पर अपने हाथों से बनाई है।। —@di
👌
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