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ट्रेन में क्लास तो कई होते हैं, लेकिन उन्हें सिर्फ जनरल डिब्बा ही नसीब होता है। किसी बड़ी फैक्ट्री के मालिक नहीं है, कोई उसी फैक्ट्री में काम करता है तो कोई वहां से निकले हुए प्रोडक्ट को ठेले में सजाकर गली-गली बेचता है। शहर में इनकी कोई बड़ी कोठी नहीं है, किराए का एक कमरा है। जिसमें कभी कभी पूरा परिवार तो कभी दो-तीन दोस्त साथ रहते हैं। इस घर में किचन, बैडरूम, हॉल जैसी कोई चीज नहीं होती। जब खाना बनाना होता है, तब सारा सामान हटाकर किचन बना देते हैं। जब खाना खाना होता है तो पेपर बिछाकर खाना खा लेते हैं। जब सोना होता है, सारा सामान किनारे रखकर गद्दा डाल देते हैं।
शहर में चलने वाली कैब, मेट्रो, एसी बसें इनके लिए नहीं है। ऐसा नहीं है कि ये उसमें चल नहीं सकते या किसी तरीके की रोक-टोक है। लेकिन उनकी कमाई और खर्चे के बीच का फर्क बहुत कुछ कह जाता है. यहां रोज नए कपड़े नहीं खरीदे जाते, कभी वक्त अच्छा रहा तो त्योहारों में पहले बच्चों के लिए फिर, अगर कुछ बच गया तो अपने लिए खरीद लेते हैं। सपने अपने लिए ज्यादा नहीं देखते, सपनों में भी इनका परिवार और बच्चों का भविष्य बसता है।
₹20 की मिलने वाली पानी की बोतल पीने की इच्छा कभी नहीं होती। जहां कहीं ₹2 गिलास वाला पानी मिल जाता है या कहीं कोई फ्री वाली टोंटी दिखते ही, वहीं प्यास बुझा लेते हैं। इनकी मेहनत का कोई मापदंड नहीं है, जब तक घर चलाने का इंतजाम नहीं हो जाता, पसीना बहता रहता है।
सच्चाई है कि इन्होंने इतनी पढ़ाई लिखाई या काबिलियत नहीं अर्जित की है। लेकिन जिंदगी से कभी हार नहीं मानी और हालात का उन्हें कोई बड़ा मलाल भी नहीं होता। चेहरे पर हमेशा मुस्कान होती है, छोटे छोटे सपने होते हैं। जिनके पूरे होने पर भी और ना पूरे होने पर भी, कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन अभी कहानी थोड़ी बदल गई है, शहर से वापस घर आना पड़ा है। दोबारा कब जाना होता है, कुछ पता नहीं! आजीविका के कई सामान और सपनों की पोटली वहीं छोड़ आए है। रिक्शे पर जमी धूल आने वाले कल को धूमिल कर रही। ठेले वाले का ठेला उल्टा पड़ा हुआ है, शायद जिंदगी भी थोड़ी उलट सी गई है। जल्द ही सब सही हो जाए, यही कामना सब हर दिन कर रहे होंगे. वक्त है बदल ही जाएगा।
– Adityamishravoice
Twitter- @voiceaditya
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