चांद के पार, पर चलें कैसे: Lockdown में मजदूर मज़बूर

Adityamishravoice

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घर अभी कोसों दूर है, पैरों में जान भी नहीं बची है। लेकिन हार मानने का भी दिल नहीं कर रहा है। बस किसी तरह अपने दोनों पैरों को मनाने की कोशिश कर रहा हूं। उन्हें घर पहुंचने के एहसास का आभास दिलाने की भी कोशिश कर रहा हूं। कैसे हमारे घर पहुंचते ही सब कुछ भूल कर वहां एक खुशी की लहर दौड़ जाएगी! कैसे खाली पेट भी अंदर से तृप्त महसूस करेंगे!
मेरा बायां पैर थोड़ा समझने की कोशिश तो कर रहा है। लेकिन दाहिना उसे ठोकर मार कर फिर रूठने के लिए मजबूर कर दे रहा है। आखिर करे भी क्यों ना, इतनी दूर से बस चले ही तो जा रहे हैं।
इन सबसे अलग जेब के अपने ही नखरे हैं। पेट किसी खाने की दुकान को देखकर वहां जाने की अर्जी तो दे देता है। लेकिन दिमाग भी जेब टटोलकर ही आगे की सोचता है और यह जेब कमबख्त खाली पड़ी है।
हाथों ने अभी तक जवाब तो नहीं दिया लेकिन माथे से टपकते पसीने को पोछने में उसकी भी नाक सिकुड़ने लगती है। एक तो बेचारा सामान के तले दबा हुआ है। दूसरा खाली है, लेकिन वह भी कदमताल के चक्कर में तिलमिला गया है। तभी बगल से एक तेज रफ्तार वाला ट्रक गुजरा, उसमें गाना भी बज रहा था। उसकी रफ्तार और गाना दोनों हौसला देने वाले थे। गाने के बोल थे “कर लो मेरा एतबार चलो, चांद के पार चलो”. फिलहाल वास्तविकता यह थी कि यहाँ चांद नहीं, घर तक ही चलना था।
कभी-कभी सबसे ऊपर महाराजा की तरह विराजमान दिमाग पर गुस्सा आता है। इतने लंबे सफर के लिए उसने मंजूरी कैसे दी. क्या उसे नहीं पता था कि अन्य लोग बगावत कर सकते हैं! खैर अभी इतना तो पता है कि आगे चलना है, बस चिंता इसी बात की है कि कितना और चलना है, यह नहीं पता.

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